Sunday, June 7, 2015

फिर से....


पलट कर देखती हू जब आज,
तो पाती हू उन सब....
बिताये लम्हो को,
लोगो को,
आपनो को, दूशमनो को,
और..
फिर सोचती हू...
समय कैसे उड़ गया..

एक-एक कर यादो को जोड़ रही हू मैं,
समेटना चाहती हू सब आज....
सोचती हू कि क्या पता समेट कर,
कल फिर से जी सकू ईन्हे..

नमी हैं इन आखों मे आज,
क्या करू ?
लौटना चाहती हू बचपन मे आज,
पर लौट नही सकती....

याद आती है वो बचपन की
मँमी-पापा की बाते,
वो हाथ पकड़ कर चलना,
उनके हाथ से खाना खा ना,
बहन के साथ बिताया हर एक पल,
और
भाई के साथ हुई हर एक झड़प..
सब कुछ करना चाहती हू फिर से..

बचपन मे लौटना चाहती हू आज,
वोह बिते कल की यादो को जीना चाहती हू आज,
फिर से....

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