Monday, September 1, 2014

काश..


ज़िदगी तू क्या चाहती है..
जिन-जिन को मैं अपना मानती हूँ ,
तू उनको ही धोखेबाज ठहराती है..

अब तो मानना पड़ेगा..
कि खूदगरज़ बनना ही अच्छा है,
क्योकि..
वफादारी में क्या रखा है..?
धोखा, धड़ी,
और कुछ भी नहीं..

यह दुनिया एक मुखौटे की दुकान से कम नहीं,
यहां दिन बदलता नहीं,
लोग अपना मुखौटा पहले बदल लेते हैं..

काश..
काश यूँ मुखौटा बदलने
का हुनर मुझमे भी होता..

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